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गढ़ – कुमाऊं की संस्कृति से लुप्त होते ढोल दमाऊ

by badhtabharat
 
कोटद्वार (गौरव गोदियाल)। उत्तराखंड में ढोल दमाऊ का एक विशेष ही महत्व है। जिसकी झलक हमें प्रायः शुभ कार्यों में देखने को मिलती है। गढ़-कुमाऊं की संस्कृति में शायद ढोल दमाऊ वाद्य यंत्र न हो तो शायद यहां की संस्कृति प्राणरहित हो जाए । उत्तराखंड की गढ़वाल और कुमाऊं की संस्कृति की बात करें तो इसमें लोक वाद्य यंत्र ढोल दमाऊं व मसकबीन इतना विशेष महत्व रखते हैं कि यहां के व्यक्ति के जीवन से लेकर मरण तक और हर वैदिक संस्कार इनके बिना पूरे नहीं हो पाते हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में यह मात्र एक पीढ़ी तक ही सीमित रह गई है क्योंकि, शायद इन लोक वाद्य यंत्रों से जुड़े बाजगी (ओजी) समुदाय को वो सम्मान और रोजगार के आयाम नहीं मिल पाए, जिसकी इन्हें उम्मीद थी ।
ढोल दमाऊ की गूंज के बिना पहाड़ी संस्कृति का कोई भी कार्य अधूरा ही माना जाता है। कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से हुई है। शिवजी ने इसे सर्वप्रथम माता पार्वती को सुनाया, जिस समय भगवान माता पार्वती को इसे सुना रहे थे तब वहां उपस्थित एक गण ने इसे याद कर लिया और तब से यह परंपरा निरंतर चली आ रही है । ढोल और दमाऊ उत्तराखंड की ग्रामीण संस्कृति की आत्मा है। जन्म से मृत्यु और घर से जंगल तक कोई भी संस्कार या सामाजिक गतिविधि ढोल के बिना पूरी नहीं होती। ढोल और दमाऊ एक दूसरे के पूरक वाद्य हैं और लोक में इनके परस्पर संबंध की मान्यता पति-पत्नी की तरह है।
ढोल एक दो तरफा ताल वाद्य यंत्र है जिसे एक तरफ से लकड़ी की छड़ी और दूसरी ओर से हाथ की थाप देकर बजाया जाता है। ढोल मुख्यत: तांबे या पीतल से बनी एक बेलनाकार संरचना है। इसके बाएं सिरे पर बकरी की खाल और दायीं ओर भैंस या बारहसिंगे की खाल मढ़ी जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में पूड़ी कहा जाता है। दायीं ओर की पूड़ी मोटी होती है तथा इसे लकड़ी की छड़ी से बजाया जाता है। जबकि बाएं सिरे की पूड़ी पतली होती है और हाथ की थाप से प्रतिध्वनित होती है। ढोल के दोनों सिरों को भांग से बनी विशेष प्रकार की रस्सी, जिसे फुलांगू कहते हैं, से बांधा जाता है। ढोल के मध्य में पीतल की पट्टी लगाई जाती है, जिसे बिजेसार कहते हैं। बिजेसार को नाग देवता का प्रतीक माना जाता है। ढोल को स्वर में लाने के लिए 12 कसीने लगाए जाते हैं,जिनकी सहायता से इसे ढीला या कसा जाता है। ढोल पर बजाए जाने वाले तालों के समूह को ढोल सागर कहते है। ढोल सागर में कुल 300 ताल एवं 1200 श्लोक, छंद है जिनके माध्यम से विशेष संदेश का आदान प्रदान किया जाता है। अलग-अलग समय पर अलग-अगल ताल बजाई जाती है जो कि संस्कार विशेष या अवसर विशेष की सूचना देती है। वहीं ढोल के लिए प्रत्येक ताल में दमाऊ का सहयोग सर्वथा अनिवार्य है। तांबे का बना यह वाद्ययंत्र एक फुट व्यास तथा आठ इंच गहरे कटोरे के समान होता है। इसके मुख पर मोटे चमड़े की पड़ी मढ़ी जाती है। दमाऊं की पुड़ी को खींचने के लिए बत्तीस शरों के चमड़े की तांतों की जाली बुनी जाती है ।